गुरुवार, 21 नवंबर 2019

हिंदी कविता - धर्म और इंसानियत |

जब खुदा ने तुझे भी मिटटी से बनाया |
और मुझे भी उसी मिटटी से बनाया |
और कयामत के बाद इसी मिटटी और ख़ाक में मिलाया |
जब तेरे अंदर दिल और मेरे अंदर भी दिल बनाया |
तो कैसे कह दूँ मैं कि खुदा ने तुझे हिन्दू
और मुझे मुसलमा बनाया |


जब तेरे भी जजबात रो पड़ते है |
मेरे भी आँसू पिघलकर बहने लगते है ||
जब तेरे अंतर्मन की वही ब्याख्या
जो मेरे अंतर्मन की है ब्याख्या |
तो फिर कैसे कह दूँ मैं कि खुदा ने तुझे हिन्दू
और मुझे मुसलमा बनाया |

जब तुझे इसी सूर्य की रौशनी रौशन करती |
मुझे भी इसी गगन की गर्मी से तपिस मिलती |
जब तुझे भी इसी कुदरत की गोदी में जगह मिलती
और मुझे भी इसी प्रकति की छावं में ठंडक मिलती |
तो दोस्त खुदा ने हम दोनों में कहाँ फर्क बनाया |

हर एक नजरिये से देखा तुझको
 हर एक नजरिये से खोजा खुद को |
जमीं से लेकर आसमां तक दोनों को सामान पाया |
तो कैसे कह दूँ मैं कि खुदा ने तुझे हिन्दू
और मुझे मुसलमा बनाया

नफरत की कालिमा से झुलस गए है |
मोहब्बत की बारिश से महरूम हो गए है |
आज शख्शियत हमारी शैतान के कब्जे में रहती हैं |
पर जुबाँ की ये जुर्रत देखो खुद को खुदा का बंदा कहती है |

और खुदा ने तुझे कायनात में लाकर |
जब अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बनाया |
और मुझे भी अपने चमन का एक फूल बनाया |
तो कैसे कह दूँ मैं कि खुदा ने तुझे हिन्दू
और मुझे मुसलमा बनाया |

तू है जिस मालिक का बंदा मैं भी उसी मालिक का बंदा
और यकीन मान खुदा ने नहीं इस दुनिया ने तुझे हिन्दू
और मुझे मुसलमा बनाया |
खुदा ने तो हम दोनों को सिर्फ इंसान बनाया |

||आपका दोस्त व हितैषी अमर जुबानी ||

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