रविवार, 22 अक्टूबर 2017

विक्षुब्ध ह्रदय

संताप प्रभा का बयां करू
या कष्ट फूलो का स्फुटित करू |

है कालचक्र का ये कैसा पग
घनघोर प्रलय को कैसे कहूँ |

उदीप्त रहता ह्रदय में रश्मि प्रभा
पर कालिमा अब वहां की कैसे कहूँ |

चांडाल हुआ हर मानव है
व्यथा ह्रदय की कैसे कहूँ |

सद्ग्रन्थ कुंठित हैं कुकर्म भावो से
वेदना उनकी वर्णित कैसे करू |

जगत तिमिर ने ढक लिया
अंध दृष्टि को रोशन कैसे करू|

पाप हो उठा प्रज्ज्वलित
धधकती धरती की व्यथा कैसे कहूँ |

चेतना मानव की सो रही है
उसे चलने को अब कैसे कहूँ ||

मर रहा हर प्राणी
जीवन की लौ कैसे भरूँ |

सत्कार जीवन का करना चाहूँ
पर मृत्यु को दूर कैसे रखूँ |

बता दे कोई पथ मुझको हे पथदृष्टा
निर्माण प्रकाश का फिर कैसे करू |

कर दे सबल निज अंतर्मन को हे ईश्वर
पाप धरा से मिटा सकूं |

अंध भगा कर जगत से मैं
ज्योति सचेतन जला सकूं ||

प्रार्थना परिणित कर दे मेरी आत्मबल से
कुकृत्यों से युद्ध कर सकूं |

हटा कर बोझ कुकर्मो का
सुकर्मी जीवन बना सकूं ||

यही निज इच्छा पनप उठी है
संस्कार धारा का खिला सकूं

अंततः आकर फिर तेरी शरण में
निर्भीक स्वरों से स्वकर्मो को बता सकूं |

ओम तत्सत ||अमरेंद्र||

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 09 जनवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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