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बुधवार, 1 अप्रैल 2020

सामाजिक चेतना |

संवेदना विकृत होकर जब सिर्फ स्वयं का अनुसरण करती है तभी सामाजिक पतन निश्चित हो जाता है | ब्यक्तिगत सोच ही सामाजिक विनाश का कारण बनता है | पर काश मानव मस्तिष्क ये समझ पाता कि वह जिस डाली में बैठा है, उसका मूल समाज ही है | मूल के प्रति कर्तब्यबिमूढ़ होना विनाश का आमंत्रण है | स्वयं की डाली तभी हरी भरी रह सकती है जब मूल को पर्याप्त पोषण मिलेगा | पर सरकारी ईंटे चुराकर स्वयं की दीवार खड़ी करने का लालच सोई  हुई चेतना को जगने ही नहीं देता और सामाजिक कर्तब्य से बिमुख हुआ मानव सामाजिक चोरी करके भावी पीढ़ी का भविष्य भी ब्यक्तिगत बना देता है | और चोरी, चापलूसी, भ्रष्टाचार की नींव से खड़ी विकास की ऊँचाई फिर पिछड़े व अविकसित मध्यम वर्गीयों का भी सोया हुआ लालच जगा देती   है जिससे फिर सामाजिक चोरी करके ब्यक्तिगत विकास झुंडो में होते है | साथ ही सामाजिक सोच की अवस्था भी ऐसी निर्मित हो जाती है, की स्वयं का उत्थान किसी भी कीमत पर करने वाले की समाज में वाह वाही होती है, जिससे खून पसीने की कमाई में विश्वास रखने वाला अविकसित इंसान तिरस्कृत और शर्मिंदा होता है और एक सीमा के बाद फिर समाज से अपनी इज्जत हिलती देख संस्कारवादी भी बड़ी बड़ी बातों को दरकिनार करके अच्छाई - बुराई के सारे फासलो को मिटा देते है और फिर ये समाज पदार्पण करता है एक नए दौर में --- जिसे शायद हम बदला हुआ ज़माना कह देते हैं |

शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

गुरूर को हरायें और जीवन को लक्ष्य तक पहुंचाये |

जिंदगी स्वयं से निकल कर ही उत्थान की ओर बढ़ती है जब तक इंसानी मन मैं से नहीं निकल पाता तब तक उसका उत्थान भी असंभव हो जाता हैं |
याद रखे सृष्टि का हर एक जीव परमात्मा का प्रकाश है जो की कुकर्मो के प्रभाव से भिन्न भिन्न योनियों में भटक रहा हैं | अतः स्वयं की हर एक शक्ति हर एक में विद्यमान है वो चाहे सुप्तावस्था में ही क्यूँ ना हो किन्तु है जरूर इसलिए प्रत्येक जीव को हमें पर्मात्माधीन मानना चाहिए | और लौकिक जगत में भी हम तभी विकास की ऊंचाई पाते हैं जब हमारी प्रकति निःस्वार्थ हो | हमारी चेतना जब अंतरभिमुख होकर जब ऊंचाई की ओर बढ़ती है तब हम विकास की उत्थान की सारी हदें पार कर जाते है |
 वहीं दूसरी ओर हमारा पतन तभी सुनिश्चित होता हैं जब हम अहंकार में स्वयं के वजूद को रखते हैं और मैं के अलावा कुछ आगे देख ही नहीं पाते जिससे हम परमार्थ से भी वंचित हो जाते हैं और उत्थान से भी अतः सदैव यह कोशिश करें की जीवन में किसी भी शानदार प्रदर्शन में हम ईश्वर को ही धन्यवाद करें इससे अहंकार कभी हम पर हावी नहीं हो पाता क्योंकि अहंकार ही जीवन की वो शत्रू हैं जो इंसानी वजूद पर कब्ज़ा कर लेती है और इंसान उस शिखर की और नहीं बढ़ पाता जिधर उसे जाना था क्योंकि अहंकार स्वयं के अलावा उसे आगे बढ़ने ही नहीं देता और जीवन मैं में उलझकर अपनी मधुर बेला को समाप्त कर अंधेरो के गर्त में पहुँच जाता है |

दोस्तों आइये जानते हैं कुछ तरीके जिससे हम मैं को स्वयं से दूर रखे : -
1 :- जीवन की किसी भी सफलता के मालिक सिर्फ तुम नहीं हो सकते ये बात अपने चित्त में बैठा लेनी चाहिए |
2 : हमारा मन हमेशा सरल और सकारात्मक बना रहे इसके लिए प्रार्थना को दिनचर्या में शामिल करें |
3 :- दूसरो को सम्मान देना सीखे भले ही वो हैसियत में आपसे छोटा या कमजोर हो |
4:- किसी ना किसी महापुरुष को अपना आदर्श बनाये और उनके विचारो को समय समय पर दुहराते रहे ये आप में सकारात्मक ऊर्जा भरेंगे |
5:- दूसरो की सफलता पर उन्हें बधाई देना ना भूले इससे आपका गुरुर खत्म होगा साथ में आपके रिश्ते भी मजबूत होंगे |
साथियों छोटी छोटी बातो पर क्रोधित हो जाने की अपेक्षा माफ़ करना सीखे इससे आप में गजब का परिवर्तन होगा और आपका हृदय पवित्र होगा जो कि ईश्वरीय शक्तियों का केंद्र बनेगा |
और हम जिंदगी को धन्य बनाते हुए प्रकति के दिए वरदान को सार्थक करें और आज से ही एक प्रेम भरे जीवन की ओर अग्रसर हो जाये |
दोस्तों कमेंट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रया जरूर दें कि आज से आप अपने ब्यक्तित्त्व में परिवर्तन के लिए संकल्पवादी बने हो कि नहीं |
..........आपका मित्र और हितैषी अमर जुबानी................

बुधवार, 27 सितंबर 2017

प्रकति से ही जीवन और सुंदरता है |

आज रोज की तरह जब मैं फिर अपनी कंपनी वाले पार्क में बाहर निकल के अपने दोस्तों (पेड़ो) से मिलने गया तो आज उनकी जुबान में कुछ अलग बात थी आज वहां की हवा में एक अद्भुत सा जीवन नजर आ रहा था नीचे लगी दूब (घास) के कंपल भी जैसे आज नयी ऊर्जा प्राप्त कर रहे थे | पूरी प्रकति आज की बदली बदली सी थी जब अंदर ए . सी . की ठण्ड से ब्याकुलता महसूस होने लगती है आत्मा में बोझ महसूस होने लगता है  तब बीच बीच में समय निकाल कर मैं इनसे 10, 5 मिनट के लिये मिलने आ जाया करता हूँ  इनकी झलक मात्र से पूरे शरीर का जहर दूर हो जाता है मगर हाईवे एन . एच . 8 के किनारे होने के कारण गाड़ियों की धुल से ये भी कुछ कुछ मुरझाये से रहते थे मगर आज शाम 5 बजकर 10 मिनट में जब मैं इनके पास आया तो इनमे कुछ अलग ही तेज था | दोस्तों ये सिर्फ महसूस करने की बात है कोई सिद्ध करने की नहीं की नवरात्रि के दिन से पता नहीं क्यों पूरी प्रकति में बदलाव सा हो जाता है अचानक से बीमारियों का खात्मा होने लगता है कारण जो भी हो पर एक सच्चाई ये भी है की आज बुराई भी लोगो के मन से गायब थी लोग आज सात्विक दिख रहे थे व्रत भी रखे थे आज जैसे तपस्या का दिन था अवगुण कुकर्म आज इंसानो से मीलो दूर थे प्रकति को उसकी खुराक (तपस्या) इंसानो के द्वारा मिल रही थी इसीलिए शायद आज उसमे जान भी आ गयी थी दोस्तों बस सोचने वाली बात ये है की जब इतने मात्र से ही प्रकति में इतना बदलाव आ जाता है तो अगर इंसान सुपथ पर चलकर सुकर्मो की महान जिंदगी बना ले तो प्रकति का उत्थान कहाँ पर होगा शायद भूकंप त्रासदी तरह तरह की महामारियाँ बस शब्द बन के रह जाएंगी पर काश ये इंसान समझ पाये की ये व्रत त्यवहार इसीलिए बने थे की जाने अनजाने हम प्रकति में जीवन भरते रहें और खुद का उत्थान करते रहें दोस्तों विज्ञान और ये दुनिया माने या ना माने पर मेरा ये निजी अनुभव है और मेरा दावा भी है हर बीमारी और त्रासदी का इलाज इंसानो का सुकर्मी हो जाना है |
आज लाखो में कोई एक सुकर्म के पथ पर चलने की कोशिश करता होगा और उसे भी कुकर्म का ज्ञान तर्क दे देकर मजबूर कर देते है मात्र इसलिए की वो उसके झुण्ड का क्यों नहीं है |झुण्ड के झुण्ड कुकर्म और प्रदूषण बढ़ा रहे है तो फिर कितनी भी इलाज की अच्छी पद्धति आ जाये कितना भी विज्ञान अपना दावा ठोक दें पर इलाज होते रहेंगे विनाश अपने चरम पर पहुंचेगा ही पहुंचेगा |दोस्तों प्रकति को ये भी जरूरत नहीं है की हर कोई तपस्या करें मगर हर कोई कुकर्म को ही जीवन बना ले तो फिर इतनी गन्दगी वो कैसे झेल पाएगी छटपटाना तो होगा ही और प्रकति के छटपटाने से भी फिर हमारी ही मृत्यु होती है | दोस्तों आपने दुनिया में माताएं बहुत देखी होंगी और उन माताओ की पीड़ाये भी बड़ी असहनीय देखी होंगी मगर इस माता प्रकति की पीड़ा का अनुमान शायद ही कभी आप लोगो ने लगाया हो
लाखो साल जब ये तपस्या में तपी है तब इसने जीवन पाया है अपने शरीर पर तरह तरह के प्राणियों को जीवन दिया हर तरह की गन्दगी हजम करती है और कहीं चोट ना पहुँच जाए किसी तरह का भूकंप ना आ जाए हम बच्चों पर इसलिए खुद को इतना संतुलित और स्थिर रखती है की अपनी अंगुली तक को नहीं हिलाती है और हम ना समझ इस पर जब वार पे वार वार पे वार करते है तो हमको नासमझ मानकर ही खुद खून के आंसू पीती रहती है मगर चोटिल हुई जगह पर हाथ तक नहीं बढ़ाती है की कही मैं हिल ना जाऊं |
मगर इसकी वेदना तो तब ना चाहकर भी रोने को मजबूर हो जाती है जब इंसान पश्चिमी घाट और हिमालय में भी औद्योगीकरण की सोचता है और जब कुकर्मो की सीमा दिलो को चीर के तपस्थलियों में भी दारू पार्टी मनाती है तब इसके रूह तक में जख्म हो जाता है  | मानव के विनाश की प्रगति (HFC ) जैसी तमाम ग्रीन हॉउस गैसों के जहर से अंतरिक्ष भी जब प्रभावित हो जाता है और ओजोन जैसी परत में भी छेद हो जाता है तब ना चाह कर भी इस प्रकति को आग उगलना पड़ता है आंसुओ की धारा बहाना पड़ता है चाहे उसमे फिर कोई भी बहे और जब पाप इतना बढ़ जाए की हर चीज धुंआ धुंवा सी काली हो जाये तब ना चाहकर भी इसे अपनी जगह से खिसकना पड़ता है |
दोस्तों इसके आंसू जिसमे हम फिर पत्ते की तरह बहते है वो आंसू वेदना के कम मजबूरी के ज्यादा होते हैं
बस अपील यही है गुहार यही है आप सुकर्मी भी मत बनो किन्तु किसी सुकर्मी को मात्र इसलिए कुकर्मी मत बनाओ की वो आपकी प्रकति का क्यों नहीं है एक पौधा भी बिलकुल मत लगावो किन्तु जो खड़े हैं उनको तो मत गिराओ रोज दारू सिगरेट पियो और धुंवा फूको मगर जबरदस्ती इसकी जनसँख्या तो मत बढ़ाओ | रोज किसी निर्दोष को पकड़ कर बलि चढ़ावो
और पकाकर बड़े चाव से खावो किन्तु इसका कुतर्क देकर किसी सात्विक का जीवन मत कठिन बनाओ रोज तुम अपनी जिंदगी में आग लगावो किन्तु इसकी लपटों को किसी दूसरो के घर में मत छुवाओ |
वरना जिंदगी को तो कुतर्को से समझा लोगे मगर मौत के हिसाब को बिना सच्चाई के नहीं अदा कर पावोगे |
         आपका दोस्त और हितैषी ||अमर जुबानी