कुंतल बिखरा जीवन उलझा
श्रृंगार तन का उजड़ा उजड़ा |
मधुमय जीवन जहर लगे अब
रस्ता उसका जैसे ठहरा ठहरा |
आश बंधा झकझोर रहा तन को
वरना जीवन अब निर्जीव पड़ा |
घननाद कर गरज रही मृत्यू
बस विरह वेग से है प्राण रुका |
प्रेयसी की विदीर्ण व्यथा
नभमंडल बन बरस रहा |
स्मृति पटल पर बीता कल
विह्वल होकर छलक रहा |
पात पात में बूँद पड़े जो
शूल उगे मन में उतना |
घटा लपेटे सावन रोवे |
पल पल में भर जावें नयना |
हृदयाग्नि बन धधक रही तड़पन
चक्षु द्वार अश्रु धार में बहा हुआ |
शंकाओं से मन कम्पित होवै
अँधियारो से दिन घिरा हुआ
सन्नाटों से सिसक रहीं राते
उलझ उलझ कर दिन गुजरे |
घर आवेंगे प्रियतम एक दिन
बस सोच सोचकर मास कटे ||
दुखी पड़ी प्रियतम से वह
पर प्रेम गाँठ मजबूत बंधी |
प्राप्त करें प्रियतम सम्पूर्ण मुझे
अतः मृत्यु को भी दूर रखी
होकर विकल फिर वायुदूत
करुण दशा रो रोकर पहुँचावें |
प्रेयसी की सकुच, दीन दशा भर उर
लिपट लिपट कर प्रतीत करावें |
अकारण सुलग पड़ी वेदना प्रियतम मन में
रो रही प्रियतमा जैसे ब्याकुल दीन दशा में |
भूल हुई मुझसे जो प्रेम दूर किया निज से
करने लगा याद रख ध्यान चित प्रेयसी में |
दूर नहीं कर्तब्य विमुख नहीं हुआ मै
एकमात्र वही श्रेष्ठतम, गुनी बसी हृदय में |
फिर भी निष्ठुर हो गया मन अज्ञानता में
बाकी वही जीवन में और वही मृत्यू में ||
अनुभव सत्य का करके मन
खिन्न हुआ और विदीर्ण हुआ |
अपराधी घोषित कर स्वयम को फिर
चल पड़ा प्रेयसी के मार्ग में होकर नित |
हो गया फिर पूर्ण मिलन
जैसे प्रकृति का ईश्वर से |
करके गान मंगल पुण्य बिखरा
आज फिर प्रेयसी के आँगन में
मर्यादा में समेट दिया जीवन अपना
कर्तव्य परायण, धर्मी, दृढ़ निश्चयी बनकर |
करके प्रेम शाश्वत बनी देवी धनी हुई वह
अपने प्रियतम की एक प्रियतमा होकर |
प्रेयसी का ये प्रेम अगूढ़ा
लिखकर कलम पुलकित होवें |
है प्रेम अमर नश्वर जीवन में
समझकर मन ये गदगद होवै |
श्रृंगार तन का उजड़ा उजड़ा |
मधुमय जीवन जहर लगे अब
रस्ता उसका जैसे ठहरा ठहरा |
आश बंधा झकझोर रहा तन को
वरना जीवन अब निर्जीव पड़ा |
घननाद कर गरज रही मृत्यू
बस विरह वेग से है प्राण रुका |
प्रेयसी की विदीर्ण व्यथा
नभमंडल बन बरस रहा |
स्मृति पटल पर बीता कल
विह्वल होकर छलक रहा |
पात पात में बूँद पड़े जो
शूल उगे मन में उतना |
घटा लपेटे सावन रोवे |
पल पल में भर जावें नयना |
हृदयाग्नि बन धधक रही तड़पन
चक्षु द्वार अश्रु धार में बहा हुआ |
शंकाओं से मन कम्पित होवै
अँधियारो से दिन घिरा हुआ
सन्नाटों से सिसक रहीं राते
उलझ उलझ कर दिन गुजरे |
घर आवेंगे प्रियतम एक दिन
बस सोच सोचकर मास कटे ||
दुखी पड़ी प्रियतम से वह
पर प्रेम गाँठ मजबूत बंधी |
प्राप्त करें प्रियतम सम्पूर्ण मुझे
अतः मृत्यु को भी दूर रखी
होकर विकल फिर वायुदूत
करुण दशा रो रोकर पहुँचावें |
प्रेयसी की सकुच, दीन दशा भर उर
लिपट लिपट कर प्रतीत करावें |
अकारण सुलग पड़ी वेदना प्रियतम मन में
रो रही प्रियतमा जैसे ब्याकुल दीन दशा में |
भूल हुई मुझसे जो प्रेम दूर किया निज से
करने लगा याद रख ध्यान चित प्रेयसी में |
दूर नहीं कर्तब्य विमुख नहीं हुआ मै
एकमात्र वही श्रेष्ठतम, गुनी बसी हृदय में |
फिर भी निष्ठुर हो गया मन अज्ञानता में
बाकी वही जीवन में और वही मृत्यू में ||
अनुभव सत्य का करके मन
खिन्न हुआ और विदीर्ण हुआ |
अपराधी घोषित कर स्वयम को फिर
चल पड़ा प्रेयसी के मार्ग में होकर नित |
हो गया फिर पूर्ण मिलन
जैसे प्रकृति का ईश्वर से |
करके गान मंगल पुण्य बिखरा
आज फिर प्रेयसी के आँगन में
मर्यादा में समेट दिया जीवन अपना
कर्तव्य परायण, धर्मी, दृढ़ निश्चयी बनकर |
करके प्रेम शाश्वत बनी देवी धनी हुई वह
अपने प्रियतम की एक प्रियतमा होकर |
प्रेयसी का ये प्रेम अगूढ़ा
लिखकर कलम पुलकित होवें |
है प्रेम अमर नश्वर जीवन में
समझकर मन ये गदगद होवै |
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