शनिवार, 4 अप्रैल 2020

प्रेयसी की विदीर्ण व्यथा

कुंतल बिखरा जीवन उलझा
श्रृंगार तन का उजड़ा उजड़ा |
मधुमय जीवन जहर लगे अब
रस्ता उसका जैसे ठहरा ठहरा |

आश बंधा झकझोर रहा तन को
वरना जीवन अब निर्जीव पड़ा |
घननाद कर गरज रही मृत्यू
बस विरह वेग से है प्राण रुका |

प्रेयसी की विदीर्ण व्यथा
नभमंडल बन बरस रहा |
स्मृति पटल पर बीता कल
विह्वल होकर छलक रहा |

पात पात में बूँद पड़े जो
शूल उगे मन में उतना |
घटा लपेटे सावन रोवे |
पल पल में भर जावें नयना |

हृदयाग्नि बन धधक रही तड़पन
चक्षु द्वार अश्रु धार में बहा हुआ |
शंकाओं से मन कम्पित होवै
अँधियारो से दिन घिरा हुआ

सन्नाटों से सिसक रहीं राते
उलझ उलझ कर दिन गुजरे |
घर आवेंगे प्रियतम एक दिन
बस सोच सोचकर मास कटे ||

दुखी पड़ी प्रियतम से वह
पर प्रेम गाँठ मजबूत बंधी |
प्राप्त करें प्रियतम सम्पूर्ण मुझे
अतः मृत्यु को भी दूर रखी

होकर विकल फिर वायुदूत
करुण दशा रो रोकर पहुँचावें |
प्रेयसी की सकुच, दीन दशा भर उर
लिपट लिपट कर प्रतीत करावें |

अकारण सुलग पड़ी वेदना प्रियतम मन में
रो रही प्रियतमा जैसे ब्याकुल दीन दशा में |
भूल हुई मुझसे जो प्रेम दूर किया निज से
करने लगा याद रख ध्यान चित प्रेयसी में |

दूर नहीं कर्तब्य विमुख नहीं हुआ मै
एकमात्र वही श्रेष्ठतम, गुनी बसी हृदय में |
फिर भी निष्ठुर हो गया मन अज्ञानता में
बाकी वही जीवन में और वही मृत्यू में ||

अनुभव सत्य का करके मन
खिन्न हुआ और विदीर्ण हुआ |
अपराधी घोषित कर स्वयम को फिर
चल पड़ा प्रेयसी के मार्ग में होकर नित |

हो गया फिर पूर्ण मिलन
जैसे प्रकृति का ईश्वर से |
करके गान मंगल पुण्य बिखरा
आज फिर प्रेयसी के आँगन में

मर्यादा में समेट दिया जीवन अपना
कर्तव्य परायण, धर्मी, दृढ़ निश्चयी बनकर |
करके प्रेम शाश्वत बनी देवी धनी हुई वह
अपने प्रियतम की एक प्रियतमा होकर |

प्रेयसी का ये प्रेम अगूढ़ा
लिखकर कलम पुलकित होवें |
है प्रेम अमर नश्वर जीवन में
समझकर मन ये गदगद होवै |

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

सामाजिक चेतना |

संवेदना विकृत होकर जब सिर्फ स्वयं का अनुसरण करती है तभी सामाजिक पतन निश्चित हो जाता है | ब्यक्तिगत सोच ही सामाजिक विनाश का कारण बनता है | पर काश मानव मस्तिष्क ये समझ पाता कि वह जिस डाली में बैठा है, उसका मूल समाज ही है | मूल के प्रति कर्तब्यबिमूढ़ होना विनाश का आमंत्रण है | स्वयं की डाली तभी हरी भरी रह सकती है जब मूल को पर्याप्त पोषण मिलेगा | पर सरकारी ईंटे चुराकर स्वयं की दीवार खड़ी करने का लालच सोई  हुई चेतना को जगने ही नहीं देता और सामाजिक कर्तब्य से बिमुख हुआ मानव सामाजिक चोरी करके भावी पीढ़ी का भविष्य भी ब्यक्तिगत बना देता है | और चोरी, चापलूसी, भ्रष्टाचार की नींव से खड़ी विकास की ऊँचाई फिर पिछड़े व अविकसित मध्यम वर्गीयों का भी सोया हुआ लालच जगा देती   है जिससे फिर सामाजिक चोरी करके ब्यक्तिगत विकास झुंडो में होते है | साथ ही सामाजिक सोच की अवस्था भी ऐसी निर्मित हो जाती है, की स्वयं का उत्थान किसी भी कीमत पर करने वाले की समाज में वाह वाही होती है, जिससे खून पसीने की कमाई में विश्वास रखने वाला अविकसित इंसान तिरस्कृत और शर्मिंदा होता है और एक सीमा के बाद फिर समाज से अपनी इज्जत हिलती देख संस्कारवादी भी बड़ी बड़ी बातों को दरकिनार करके अच्छाई - बुराई के सारे फासलो को मिटा देते है और फिर ये समाज पदार्पण करता है एक नए दौर में --- जिसे शायद हम बदला हुआ ज़माना कह देते हैं |

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कोरेना महामारी पर सवाल |

अमीरो की गन्दगी और गरीबो की सफाई |
ये किसकी है गलती जो पूरी धरा अकुलाई ||

कंधो में बच्चे और हाथो में झोले |
ये कैसी है शामत चेहरों पर सिर्फ रुसवाई ||

पावों में छाले पर सफर है अधूरा |
जीवन ने डसा है या किसी और की सजा ||

ये कैसी है आंधी ये कैसा अँधियारा |
कौन सी वो डगर हैं जहां पर मिलेगा सवेरा ||


ये कैसा है मंजर ये कैसी है दुनिया  |
आँखों में भरा है पानी मुसाफिर फिर भी है प्यासा ||

गाँव छूटा अब शहर भी छूटा |
है कौन सी जगह जहां अब मिले सहारा ||

ये कैसी है आफत, कुदरत का ये कैसा शिकंजा |
इंसान हो गया कैद उड़ रहा परिंदा ||



शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

गुरूर को हरायें और जीवन को लक्ष्य तक पहुंचाये |

जिंदगी स्वयं से निकल कर ही उत्थान की ओर बढ़ती है जब तक इंसानी मन मैं से नहीं निकल पाता तब तक उसका उत्थान भी असंभव हो जाता हैं |
याद रखे सृष्टि का हर एक जीव परमात्मा का प्रकाश है जो की कुकर्मो के प्रभाव से भिन्न भिन्न योनियों में भटक रहा हैं | अतः स्वयं की हर एक शक्ति हर एक में विद्यमान है वो चाहे सुप्तावस्था में ही क्यूँ ना हो किन्तु है जरूर इसलिए प्रत्येक जीव को हमें पर्मात्माधीन मानना चाहिए | और लौकिक जगत में भी हम तभी विकास की ऊंचाई पाते हैं जब हमारी प्रकति निःस्वार्थ हो | हमारी चेतना जब अंतरभिमुख होकर जब ऊंचाई की ओर बढ़ती है तब हम विकास की उत्थान की सारी हदें पार कर जाते है |
 वहीं दूसरी ओर हमारा पतन तभी सुनिश्चित होता हैं जब हम अहंकार में स्वयं के वजूद को रखते हैं और मैं के अलावा कुछ आगे देख ही नहीं पाते जिससे हम परमार्थ से भी वंचित हो जाते हैं और उत्थान से भी अतः सदैव यह कोशिश करें की जीवन में किसी भी शानदार प्रदर्शन में हम ईश्वर को ही धन्यवाद करें इससे अहंकार कभी हम पर हावी नहीं हो पाता क्योंकि अहंकार ही जीवन की वो शत्रू हैं जो इंसानी वजूद पर कब्ज़ा कर लेती है और इंसान उस शिखर की और नहीं बढ़ पाता जिधर उसे जाना था क्योंकि अहंकार स्वयं के अलावा उसे आगे बढ़ने ही नहीं देता और जीवन मैं में उलझकर अपनी मधुर बेला को समाप्त कर अंधेरो के गर्त में पहुँच जाता है |

दोस्तों आइये जानते हैं कुछ तरीके जिससे हम मैं को स्वयं से दूर रखे : -
1 :- जीवन की किसी भी सफलता के मालिक सिर्फ तुम नहीं हो सकते ये बात अपने चित्त में बैठा लेनी चाहिए |
2 : हमारा मन हमेशा सरल और सकारात्मक बना रहे इसके लिए प्रार्थना को दिनचर्या में शामिल करें |
3 :- दूसरो को सम्मान देना सीखे भले ही वो हैसियत में आपसे छोटा या कमजोर हो |
4:- किसी ना किसी महापुरुष को अपना आदर्श बनाये और उनके विचारो को समय समय पर दुहराते रहे ये आप में सकारात्मक ऊर्जा भरेंगे |
5:- दूसरो की सफलता पर उन्हें बधाई देना ना भूले इससे आपका गुरुर खत्म होगा साथ में आपके रिश्ते भी मजबूत होंगे |
साथियों छोटी छोटी बातो पर क्रोधित हो जाने की अपेक्षा माफ़ करना सीखे इससे आप में गजब का परिवर्तन होगा और आपका हृदय पवित्र होगा जो कि ईश्वरीय शक्तियों का केंद्र बनेगा |
और हम जिंदगी को धन्य बनाते हुए प्रकति के दिए वरदान को सार्थक करें और आज से ही एक प्रेम भरे जीवन की ओर अग्रसर हो जाये |
दोस्तों कमेंट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रया जरूर दें कि आज से आप अपने ब्यक्तित्त्व में परिवर्तन के लिए संकल्पवादी बने हो कि नहीं |
..........आपका मित्र और हितैषी अमर जुबानी................

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

बिखरे रिश्तें |

बहुत दूर तक खींचा रिश्तो की डोरी पर टूट गई |
कदम उन्होंने बढ़ाये नहीं अब इल्जाम हम पर है ||

जिंदगी की तमाम बंदिशे तेरी लौटा दी हैं |
अब आजाद रूह के साथ हमें अकेले जीना हैं ||

जिंदगी की धूप को हम अपनी छत बना डाले हैं |
अब खुशियों की छाँव में रहना हमें नहीं भाता ||

अश्को के तह में ही अपना आशियाना बना डाले हैं |
अब कोई जख्म हमें अपने दर्द में नहीं डुबा पाता ||

एक दिन बैठकर हर एक अपने को गैर बना डाला |
अब कोई अपना मुझे रिश्तो की कसम नहीं दे पाता ||

जिंदगी की तू आदत सी हो गई थी |
धड़कते दिल की जैसे जरूरत सी हो गई थी ||

लेकिन दिल को बेवकूफ बनाना सीख लिए है |
उसे अब तेरी कमी का अंदाजा नहीं हो पाता ||
..........................अमर जुबानी.............................

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

जिंदगी की बेवफाई

हमने जिंदगी को ही सब कुछ माना |
पर ये भी वक्त की गुलाम निकली ||

आंसुओ की दरिया में बैठी जिंदगी  |
टटोला तो जख्मों से घायल मिली ||

कयामत के कहर से हर पल बचाता रहा इसे |
पर ये तो मौत की ही दीवानी निकली ||

हमसे कोई रंजिश तो नहीं थी |
फिर हमें तू क्यूँ मिली जिंदगी |

यूं फूल बनकर जो कांटो से चुभाना था |
तो बहार बनकर क्यूँ बिखरी जिंदगी ||

हमने तो तुझे रब से पहले जाना जिंदगी |
पर साथ तेरा गैर से भी बदत्तर रहा जिंदगी |
.....................अमर जुबानी..........................

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

संघर्ष और बुलंदी |

संघर्षो का सीना चीर के जो बुलंदी छुआ करते हैं
आखिर में वही जिंदगी जिया करते हैं |
चंद साँसों का चलना ही जीवन नहीं होता
संघर्ष विहीन जीवन का उत्थान नहीं होता |
हसरतो का  बिखरना जायज है
खाबो का टूटना जायज है
और जो उठा है उसका गिरना भी जायज है
पर बिना प्रयास ही मिले सफलता
ये कहा जायज हैं |
कठोर माटी का सीना चीर कर जो स्फुटित हो जाते हैं
फिर वही विशाल बृक्ष बनकर जगत में पहचान पातें हैं
बस यही सिद्धांत हैं इस लौकिक जगत का
जो टूट जाने पर भी अपनी पहचान नहीं भूला करते
वो एक दिन फिर स्फुटित हो जाया करते हैं |