गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

तस्वीर मेरी साफ़ है पर जाने क्यूँ शिकायत रहती हैं लोगो को |
जाने क्यूँ कीमत मेरी एहसास नहीं होती इस खुदगर्ज जमाने को |
सब रंग चढ़े पत्थर को ही दिल समझ लेते है |
पर मेरे आंसुओ को भी लोग दगा कह देते हैं ||
तकलीफ बस यही है मुझ दिल की
की मैं टूट जाता हूँ किसी के लिए
और लोग मुझे टूटा हुआ कह देते हैं |

अलविदा
अमरेंद्र

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

दुखद....आंसू आ गए देख के... क्या इंसान स्वयं के जान को ही जिंदगी समझता है ...दिमाग हो न हो पर दिल तो हर जीवो में होता हैं  जो ईस्वर का ठिकाना होता है उसे रुलाकर हम कौन सी ख़ुशी पाएंगे क़यामत इसीलिये फिर किसी पर रहम नहीं करती |

कितने कलेजे चीर देते हैं आसानी से हंसकर |
इंसान तेरी फितरत भी शैतान से काम नहीं ||

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

अजीब इश्क है उनका मुझसे
कि अपनाते भी नहीं
और शिकायत भी रखते हैं

दुनिया छोड़ सकते हैं एक उनके खातिर
पर पता नहीं क्यूँ वो यकीन करते ही नहीं |

और बस यही शिकायत है हमको भी
कि दरिया तो दूर बूँद भी नहीं बरसाते
और कहते हैं शमा जल रहा है |

अमर जुबानी 

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

कितना भी बुरा हूँ पर दिल में दर्द तुम्हारा ही है 
इन लबो में जुबान भले ही तेरी शिकायत की हों
पर दिल की गहराई में एहसास तुम्हारा ही है 
बस नासूर है दिल मेरा जो खरोंचो से भी तड़प उठता है 
और मोहब्बत के एक बूँद से छलक भी पड़ता है ||
पर मुझे ना समझने वाले ऐ मेरे फिकरमंद 
         खुदा कोई भी हो 
पर मेरी इबादत में नाम तुम्हारा ही है ||

                   अमर जुबानी 

शनिवार, 4 नवंबर 2017

मायने जिंदगी के तुम्हारे कुछ और ही है
पर मैं तो मौत को भी जिंदगी समझता रह गया
हमें पता ही नहीं था बूत में जान नहीं होती
बस पत्थर में खुदा ढूंढता रह गया |


शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

एक टूटा हुआ आशिक जो जिन्दा तो है पर अब जिंदगी नहीं है

रूखी पलकों से अब इन्तजार किसका करू|
तू खो गयी अब ऐतबार किसका करूँ ||
साँसे ही ना हो जब सीने में |
तो जिंदगी की चाह कैसे करूँ ||

टूटा हुआ फूल हूँ महेक मेरी बिखर गयी |
तुझसे अलग क्या हुआ पहचान ही मेरी खो गयी |
रौनक हूँ बस अब दुनिया की श्रन्गारो का |
अल्फाज बन गया हूँ मसलते हाथो की जुबानो का ||

तड़पकर इस दर्द को अब किससे कहूँ |
होकर तुझसे जुदा अब जिंदगी को जिन्दा कैसे रखूँ  ||

अलविदा

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

विक्षुब्ध ह्रदय

संताप प्रभा का बयां करू
या कष्ट फूलो का स्फुटित करू |

है कालचक्र का ये कैसा पग
घनघोर प्रलय को कैसे कहूँ |

उदीप्त रहता ह्रदय में रश्मि प्रभा
पर कालिमा अब वहां की कैसे कहूँ |

चांडाल हुआ हर मानव है
व्यथा ह्रदय की कैसे कहूँ |

सद्ग्रन्थ कुंठित हैं कुकर्म भावो से
वेदना उनकी वर्णित कैसे करू |

जगत तिमिर ने ढक लिया
अंध दृष्टि को रोशन कैसे करू|

पाप हो उठा प्रज्ज्वलित
धधकती धरती की व्यथा कैसे कहूँ |

चेतना मानव की सो रही है
उसे चलने को अब कैसे कहूँ ||

मर रहा हर प्राणी
जीवन की लौ कैसे भरूँ |

सत्कार जीवन का करना चाहूँ
पर मृत्यु को दूर कैसे रखूँ |

बता दे कोई पथ मुझको हे पथदृष्टा
निर्माण प्रकाश का फिर कैसे करू |

कर दे सबल निज अंतर्मन को हे ईश्वर
पाप धरा से मिटा सकूं |

अंध भगा कर जगत से मैं
ज्योति सचेतन जला सकूं ||

प्रार्थना परिणित कर दे मेरी आत्मबल से
कुकृत्यों से युद्ध कर सकूं |

हटा कर बोझ कुकर्मो का
सुकर्मी जीवन बना सकूं ||

यही निज इच्छा पनप उठी है
संस्कार धारा का खिला सकूं

अंततः आकर फिर तेरी शरण में
निर्भीक स्वरों से स्वकर्मो को बता सकूं |

ओम तत्सत ||अमरेंद्र||